यूँ तो रबींद्रनाथ टैगोर ने अपने जीवनकाल में कई देशों का दौरा किया था लेकिन इटली के तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी के निमंत्रण पर सन 1926 में उनके इटली जाने पर ख़ासा विवाद खड़ा हो गया था.
इटली जाने पर टैगोर की विदेश और भारत के अंदर काफ़ी आलोचना हुई थी और इसके लिए उन्हें काफ़ी सफ़ाई भी देनी पड़ी थी.
बेनिटो मुसोलिनी को फ़ासिज़्म का जन्मदाता कहा जाता है. उनका अंत बहुत भयावह हुआ था. उनको और उनकी महिला मित्र क्लारेटा पेटात्ची को 29 अप्रैल, 1945 को कोमो झील के किनारे गोली मारी गई थी. फिर उनके शवों को मिलान ले जाकर पियासाले लोरेटो में उल्टा लटका दिया गया था.
बीस और तीस के दशक में मुसोलिनी की दुनिया में बहुत ठसक हुआ करती थी. विंस्टन चर्चिल, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, रबींद्रनाथ टैगोर और यहाँ तक कि महात्मा गाँधी भी उनकी तारीफ़ किया करते थे.
सन 1941-43 के दौरान सुभाष चंद्र बोस भी मुसोलिनी को अपना मित्र मानते थे. जब वो जनवरी, 1941 में कलकत्ता से बच निकल कर काबुल पहुंचे थे तो काबुल से बर्लिन की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अपना नाम बदल कर इटालियन नाम ओर्लैंडो माज़ोटा रख लिया था.
मुसोलिनी ने टैगोर को आमंत्रित करने के लिए अपने दो प्रतिनिधि शाँति निकेतन भेजे थे.
सन 1925 में मुसोलिनी ने अपने दो प्रतिनिधियों कार्लो फ़ोरमिची और जुसेपे टुची को शाँति निकेतन भेजा. उनके साथ उन्होंने कई बहुमूल्य किताबें भी शाँति निकेतन की लाइब्रेरी को उपहारस्वरूप भेजीं.
कल्याण कुंडू अपनी किताब ‘मीटिंग विद मुसोलिनी टैगोर्स टूर्स इन इटली’ में लिखते हैं, “मुसोलिनी का विश्वास था कि टैगोर की इटली यात्रा से उनके शासन को वैधता मिलेगी. इसलिए उन्होंने टैगोर को राजकीय अतिथि के तौर पर इटली आमंत्रित किया. दिलचस्प बात ये थी कि कलकत्ता में इटली के वाणिज्य दूतावास को भी मुसोलिनी के इस फ़ैसले की हवा नहीं थी.”
कृष्ण कृपलानी टैगोर की जीवनी में लिखते हैं, “मुसोलिनी के इस कदम से प्रभावित होकर और उनकी रंगीन शख़्सियत को खुद अपनी आँखों से देखने की इच्छा की वजह से टैगोर ने मुसोलिनी का इटली आने का निमंत्रण स्वीकार किया था. इटली जाने से पहले उन्होंने कहा था कि मुसोलिनी का निमंत्रण स्वीकार करने का ये मतलब नहीं है कि मैं उनके सभी विचारों को स्वीकार कर लूँगा. जो चीज़ें मुझे पसंद नहीं हैं उनके बारे में मैं चुप नहीं रहूँगा.”
एक बार वो पहले 1925 में इटली जा चुके थे लेकिन 1 साल बाद 1926 में उन्होंने दोबारा इटली जाने का फ़ैसला किया.. इटली रवाना होने से पहले टैगोर ने कहा, “मुझे खुशी है कि मुझे अपनी आँखों से उस शख़्स के काम को देखने का मौका मिल रहा है जिसे महान माना जाता है और जिसे इतिहास में हमेशा याद रख जाएगा.”
कृपलानी का मानना है कि यहाँ टैगोर से फ़ैसला लेनें में ग़लती हुई. 15 मई, 1926 को रबींद्रनाथ टैगोर इटालियन पोत ‘अकुलिया’ से बंबई से इटली के शहर नेपल्स के लिए रवाना हुए. वहाँ से उन्हें और उनके दल को एक विशेष ट्रेन से रोम लाया गया.
रोम से प्रकाशित होने वाले अख़बार ‘इल रेस्तो डेल कार्लिनो’ ने अपने 1 जून, 1926 के अंक में लिखा, “भारतीय कवि रोम के रेलवे स्टेशन पर अपनी परंपरागत पोशाक पहने हुए उतरे. उनकी ट्यूनिक पर सुनहरी कढ़ाई की हुई थी. उन्होंने एक पगड़ी भी पहनी हुई थी जो उनके पतले और गहरे रंग के शरीर को राजसी आकृति प्रदान कर रही थी. प्रोफ़ेसर फ़ोरमुची ने बातचीत के दौरान बताया कि टैगोर की इटली यात्रा का मुख्य उद्देश्य मुसोलिनी को धन्यवाद देना है.”