लाड़ली बहना, भांजे-भांजियों की एक न चली, सत्ता वापसी में शिवराज को दिल्ली से आखरी उम्मीद
भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में मिली बंफर जीत से गदगद है। 2018 के बाद आलाकमान के बदले स्वरूप को लेकर मध्यप्रदेश की बात करें तो 15-16 महीनों को छोड़ 20 बर्षों से यहां बीजेपी सत्ता में रही है। इन 20 बर्षों में उमा भारती , स्व. बाबू लाल गौर और शिवराज सिंह जिन्होंने 17 साल मुख्यमंत्री रहकर मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व किया। सन 2014 जब देश मे मोदी के प्रतिनिधित्व में बीजेपी केंद्र की सत्ता पर काबिज होती है। प्रदेश स्तर पर कद्दावर चेहरे खुद से स्थापित रहते हैं। मोदी के आते ही पार्टी स्तर पर इसका प्रभाव पड़ना तय था। शिवराज सिंह भी इसको लेकर सचेत थे। जो शिवराज को प्रतिद्वंद्वी मानते थे वो केंद्र में खुद के कद बढ़ाने को लेकर काम कर रहे थे। इनमे जो बगैर गुट के स्वतंत्र रहकर काम कर रहे थे उस पर मोदी से जुड़ी टीम की नजर बनी हुई थी। इन 17 सालों में बहुत से समीकरण बनते – बिगड़ते देखे गए। गुटबाजी के चलते मंत्रीमंडल विस्तार में मुंह देख-देखकर महत्वपूर्ण विभाग दिए गए। इसके चलते खुद के क्षेत्र के विकास से जुड़े मुद्दों में रोड़े बनकर सामने आ जाते थे। जिसका जनप्रतिनिधियों द्वारा खुलकर विरोध देखने को मिला।2018 में मिली हार के बाद सत्ता वापसी के सूत्रधार सिंधिया खेमा जिसको शिवराज खेमा जैसी तबज्जो देखने को मिली है। इसका कारण ज्योतिरादित्य की सीधी रिपोर्ट आलाकमान को होना मानी गई।
मध्यप्रदेश के साथ खुद से स्थापित राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में डॉ रमन सिंह के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव हुए। मोदी और शाह ने इनके बीच तब तक दखल नही दिया। जब तक इनके प्रभाव से भारतीय जनता पार्टी इन प्रदेशों में अच्छा काम कर रही थी। 2018 विधानसभा चुनाव में जब यहां से पार्टी का सफाया हो जाता है। इसके बाद शीर्ष नेतृत्व का सीधे दखल होना शुरू होता है। इन 5 साल में बीजेपी राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विपक्ष की भूमिका में और मध्यप्रदेश में सिंधिया की बदौलत मध्यप्रदेश में सत्ता वापसी कर लेती है। ज्योतिरादित्य से गठजोड़ के दौरान इसमे केंद्र का सीधा हस्तक्षेप रहता है। 2023 विस चुनाव जैसे इसमे शिवराज सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका तो रही पर इसको लेकर पूरी कमांड शाह के हाथों में बनी रहती है। आलाकमान ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने के बाद किसी और गुट उपजने का जोखिम लेना नही चाहता था। एक समझौते के तहत शिवराज को मध्यप्रदेश की कमान फिर सौपी जाती है। इस दौरान केन्द्र के हस्तक्षेप को लेकर शिवराज सिंह अपने को असहज महसूस कर रहे थे। इसके चलते इनसे जुड़े खेमे को आगे की तैयारी का जिम्मा सौपा जाता है। शिवराज की सब जानकार भी अनजान बने रहना एक मजबूरी या कहें भविष्य की तैयारी मानी जाकर देखी गई। इससे खुद की मजबूती में गुटबाजी बढ़ती जा रही थी। जिसकी शिकायत समय – समय पर आलाकमान के पास पहुंच रही थी।
आज भले ही शिवराज सिंह और बसुंधरा राजे को लालकृष्ण आडवाणी खेमा का होना मानकर मोदी और शाह से दूरी होना बताई जा रही है। हम गहराई से देखें तो इसमे सिंह के कार्यकाल के दौरान वह सब कमियां दिख जाएंगी जिसको लेकर शीर्ष नेतृत्व नजरअंदाज नही कर सकता। शिवराज सिंह की जनहितैषी योजनाओं को प्रदेश में दूसरा मुख्यमंत्री छू पाए ये भी कहना सही मान लिया जाए। पर गलतियां की है और उस पर कभी नजर न पड़े ऐसा सम्भव नही रहता है। राजनेता इसको लेकर भविष्य के परिणामों का आभास करके नही चलते। जब विरुद्ध में एक्शन होता है जब तक सब हाथ से बाहर निकल जाता है। मध्यप्रदेश में शिवराज की आज भी दरकार है। काश वो विद्रोह की राजनीति न करते। खुद की निर्विवाद छवि को ध्यान में रखकर आगे बढ़ते तो उनको शायद ही ऐसा मौका देखने को मिलता।