दिल्ली आलाकमान ने शिवराज को मुख्यमंत्री के चेहरे से किया दूर, लोकप्रिय नेता के चेहरे पर एमपी विधानसभा में लगा केन्द्र का ग्रहण, भाजपा के आत्मविश्वास में आई कमी, जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप को क्षेत्रीय इकाइयों ने मन से गलत साबित करने की ठानी
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद सरकार किसी भी दल की बनकर आए, इस बार मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में शिवराज सिंह नही होंगे। सूत्रों से मिली जानकारी अनुसार मामा को यह स्प्ष्ट संदेश दे दिया गया है। चुनावी बेला में शिवराज का यूं कमजोर होकर पार्टी का प्रचार -प्रसार करना इस बात पर मुहर लग जाने के संकेत दे रहा है। मध्यप्रदेश में जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सक्रियता बढ़ती देखी गई है उसको देखकर लगने लगा था इस बार मध्यप्रदेश बीजेपी में बहुत से बदलाव देखने को मिलेगें। पहली और दूसरी लिस्ट में उम्मीवारों का चयन दिल्ली हाई कमान की सहमति से हुआ। जब इस पर सर्वे हुआ जिसमे बहुत सी खामियां नजर आईं। तीसरी लिस्ट में शिवराज सिंह की सहमति को शामिल कर निर्णय लिए गए। जिसमे ज्यादातर उम्मीदवार उनके खेमे के चुने गए। चौथी लिस्ट आने से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया का ख्याल रखा गया। उम्मीदवार चयन में ज्योतिरादित्य को दूर रखने से वो आहत थे। पार्टी द्वारा जिन सीटों को होल्ड पर रखा है। अब उसमे सबकी रायसुमारी ली जा रही है। कुल मिलाकर कहा जाए तो बीजेपी के आलाकमान ने माहौल न बिगड़े उस हिसाब से सबको साधने की कोसिस शुरू कर दी है। चुनाव रणनीति को लेकर जो भी बैठकें या निर्णय लिए उसमे समयानुसार बदलाव देखे जा रहे हैं। पार्टी शिवराज सिंह के मुख्यमंत्री फेस को ध्यान में रखकर सर्वे करा रही है। दिल्ली हाईकमान को लग रहा है एक चेहरा होने से जनता की बीजेपी के प्रति नकारात्मकता बड़ी है। शायद यहीं कारण है कि मध्यप्रदेश से मुख्यमंत्री को किनारे कर पीएम नरेंद्र मोदी को आगे कर चुनाव प्रचार किया जा रहा है।
एक नारा दिया गया है एम पी के मन मे मोदी, मोदी के मन मे एमपी। इसे देते समय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बगल में खड़े थे लेकिन उनका नाम नही लिया गया। बात सीएम चेहरे की करें तो 18 साल से सत्तारूढ़ शिवराज सिंह की लोकप्रियता को कोई नकार नही सकता। जिनके प्रचार प्रसार में करोड़ों खर्च किए जा चुके हैं। आलाकमान को उनके चेहरे को ध्यान में रखकर कदम उठाने चाहिए। जरूरी नही की कि अति केंद्रीकरण की सोच क्षेत्रीय राजनीति में सफल हो पाए। इसके लिए गुजरात, यूपी में सफलता मिली है तो दिल्ली, कर्नाटक , हिमाचल, झारखंड जैसे अन्य राज्यों में विफलता भी हाथ आई है। दिल्ली हाईकमान के प्रति बगावती सुर हिमाचल में देखने को मिले थे। केंद्रीय मंत्री डरे हुए हैं कि कहीं उन्हें भी विधायक का चुनाव लड़ने का निर्देश न आ जाए। इन सबका असर राज्य की इकाइयों में स्प्ष्ट नजर आ रहा है। हाईकमान को लोकप्रिय नेता के चेहरे को ध्यान में रखकर रणनीति बनाने की जरूरत है। जिन केंद्रीय मंत्री सांसदों और राष्ट्रीय महासचिव को मैदान में उतारा है उससे शिवराज सिंह के मधुर सबंध और चुनावी रणनीति में क्षेत्रीय राजनीति उनसे जुड़ी इकाइयों को एक साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। जिस तरह मध्यप्रदेश में भाजपा के पास आत्मविश्वास की कमी देखी जा रही है आगे चलकर क्षेत्रीय राजनीति केंद्र के सीधे हस्तक्षेप के दावों को प्रदेश में बदलाव कर उसे गलत साबित कर सकने की ओर अपने कदम बढ़ा सकती है।