योग्य प्रत्याशी का चयन कर वोट करने के बिगड़े समीकरण, सुरखी विधानसभा वासियों के कानों मे जातिवादी भोंपू का शोर, लोगों का भटका ध्यान, एक तरफ कुंआ दूसरी तरफ खाई जैसा बन रहा माहौल
सुरखी विधानसभा जातिवाद के रंग में रंग गया है। उम्मीदवार भले ही इससे अछूते हैं। उनके समर्थक भोर होते ही उसमे डुबकी लगाकर दिन की शुरुआत कर रहे हैं। इन समर्थकों ने सबके आराध्य भगवान को भी नही छोड़ा। कोई जय परशुराम भगवान कोई जय श्रीराम का उद्घोष करते हुए अपने स्वजातीय भाई- बांधव को इस रण में साथ रहने की अपील करता दिखाई दे रहे हैं। ऐसा नही है कि सभी इसमे रुचि दिखा रहे हैं। ऐसे लोगों का प्रतिशत तो कम है। पर फिजा बदलने में इनकी भूमिका अहम हो सकती है। जिनका इससे वास्ता नही है जब उनके कानों तक इस तरह की बातें पहुंच रहीं हैं। बदलते समीकरण में गलत बहाव के चलते इससे लोगों के रूख बदलने की संभावना देखी जा रही है।
एक अंदाजे के तौर पर इसको नेताओ के कुचक्र से जुड़ा कहा जा रहा है। चुनाव के समय वोट बढ़ाने की राजनीति में इस तरह के प्रयोग कई बार होते देखें गए हैं। इन सबके बीच वो वोटर जिसका किसी जाति, सम्प्रदाय से अलग सोच रखकर योग्य प्रत्याशी का चुनाव कर वोट देना होता है। वह इस तरह के माहौल में खुद को असहज महसूस करने लगे हैं।
सुरखी विधान सभा मे मतदाताओं की बात करें तो लगभग ब्राह्मण 10-12 हजार ठाकुर 35 हजार लोधी 15-20 हजार कुशवाहा 33-34 हजार, कुर्मी 15 हजार और SC/ST 35-40 हैं। अन्य को जोड़कर सुरखी विधानसभा में 225000 के आसपास मतदाता हैं।
वर्तमान दौर में जातिवादी सोच हर समाज के वर्गो के लिए घातक होती जा रही है। नेताओं को जाती के सहारे घर बैठे एक बड़ा समर्थन हासिल हो जाता है। सत्ता और पद में रहकर और इस सबसे बिमुख भी हो जाएं तब भी नेताओं को इसकी ताकत मिलती रहती है।
अभी तक जितने भी नेताओ ने जाती का सहारा लिया उसका कुछ न कुछ लाभ जरूर हुआ है। इसके साथ चंद लोग जिसकी जरूरत नेताओं को रहती है वो भी इसका लाभ उठा लेते हैं। जिसको सही जरूरत होती है वो मदद से वंचित रहते आए हैं। एक जरूरतमंद के लिए इसका कोई सहारा नही मिलता। हाँ ये बात जरूर है जब भी जाति के नाम पर एकता होती है। नेताओ को उसमे अपनी राजनीति को चमकाने का एक सुनहरा मौका मिल जाता है। जब मामला शांत होता है तब सामने वाले के घर कोई पूंछने वाला नही होता। उल्टा वो दूसरे लोगों की नफरत की बजह बन जाते हैं। कोई खुलकर कोई चोरी छुपे इसका इस्तेमाल करता है। आमजनमानस को अपने नेता का जातिवादी होना खटकता है। संगठन भी जातिवादी सोच के व्यक्ति को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने से कुचक्ति है।
जाती का सहारा लेकर बेशक आप कुछ जगहों पर आगे बढ़ सकते हैं। पर समानता रखने के लिए यह अच्छे माहौल में विष घोलने का काम करता है। जिसके आगे चलकर बेहद बुरे परिणाम निकलकर आते हैं। यह वह दाग बनकर उभरता है जिसे आगे चलकर चाहकर भी खुद से अलग करना असंभव हो जाता है।