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मध्यप्रदेश की सत्ता के ताज में हुकुम की भागीदारी, शिवराज और शाह के निर्णय का क्या कमलनाथ को मिला बड़ा लाभ

Hukum's participation in the crown of power in Madhya Pradesh, Nath's mill of justice is ready, Kamal Nath got a big benefit from the decision of Shivraj and Shah

Shailendra Singh by Shailendra Singh
December 5, 2023
in सागर, भारत, राजनीति, बात पते की
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विधानसभा 2023 का चुनाव इस बार बेहद रोचक रहा है। किसी भी सीट पर उम्मीदवार की जीत को लेकर कोई आश्वस्त नही दिख रहा है। राजनीतिक विश्लेषक सभी मुद्दों का गहराई से अनुमान लगाकर किसी निर्णय लेने की स्थिति में जैसे आगे बढ़ते हैं। उनके सामने दोनो तरफ के टक्कर के उम्मीदवार का विश्वास फिर सोचने पर मजबूर कर देता है। सही अनुमान न लगा पाने के कई कारण हैं। भारतीय जनता पार्टी से शुरू करें तो 15 महीने छोड़कर वो 2003 से सत्ता पर काबिज बने हुए है। जिसकी वर्तमान में उम्र 20 बर्ष है उसने बीजेपी के अलावा दूसरी पार्टी का कार्यकाल नही देखा। अन्य पार्टी द्वारा सत्ता चलाने की क्या रीति -नीति रहती है वो इसका अहसास नही कर पाए हैं। यहीं हाल उस युवा वर्ग का है जिसके लिए रोजगार और नौकरी सबसे महत्वपूर्ण विषय है। जो इससे अछूते हैं वो नयी सरकार से बड़ी आस और उम्मीद लगाए देखे जा सकते हैं।

 

मुख्यमंत्री रहते शिवराज सिंह की उपलब्धियों की लंबी लिस्ट है। अभी हमारा ये विषय नही है। इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे। हमारा विषय सरकार बनने को लेकर है। बीच मे जो भी मुख्य विषय रहेंगे हम उस पर चर्चा करेंगे।

 

मध्यप्रदेश ने प्रदेश में मुख्यमंत्री के कई चेहरे देखे। इन सबके बीच हम सबको मामा के चेहरे जैसी लोकप्रियता इसके पहले देखने को नही मिली थी।

 

चुनाव परिणाम के रुझानों में एक्सपर्ट कांग्रेस की सरकार बनने के दावा कर रहे हैं। मध्यप्रदेश में बगैर शिवराज के सोचना एक कमी का अहसास कराता है। सत्ता किसी भी पार्टी की रहे। मामा का गुरु ज्ञान लेकर दूसरा मुख्यमंत्री आगे बढ़ने में अपनी भलाई समझेगा।

 

सत्ता और उसको चलाने वाले एक चेहरे और पार्टी से समय के हिसाब से घुटन का होना स्वभाविक प्रक्रिया कही जा सकती है। हम यह सोचें कि शिवराज में कोई कमी नही तो ये गलत होगा। बहुत से निर्णय जिनको दरकिनार करके चलना सीधा पार्टी को नुकसान पहुंचाने का काम कर रहे थे। इसमे सबसे बड़ी चूक में 2020 में कमलनाथ सरकार को गिराकर सत्ता की चाबी हथियाना रहा है।

 

भारतीय जनता पार्टी 2018 की हार के बाद सत्ता से दूर रहना बर्दास्त नही कर पा रही थी। कांग्रेस की सरकार आने में ज्योतिरादित्य की भूमिका को कोई नकार नही सकता। सरकार बनने से पहले और सत्ता में वापसी के बाद सोनिया गांधी ने प्रदेश की पूरी कमांड कमलनाथ को सौंप दी थी। मुख्यमंत्री रहते पार्टी और सत्ता के सभी बड़े निर्णयों में आखिरी मुहर कमलनाथ की लगनी जरूरी मानी जाती थी। उनके बगैर कोई भी निर्णय अधूरा  था। शायद यह सब सिंधिया खेमा को खटक रहा था। इस चुनाव में सीएम चेहरे के तौर पर एक नाम सिंधिया का भी था। एक ये कसक। कमलनाथ द्वारा मंत्रियों के हस्तक्षेप से जुड़े निर्णय खुद के न होकर उसमे दिग्विजयसिंह को आगे कर दिया जा रहा था। इसमे विशेष तौर पर सिंधिया खेमा के मंत्री विधायकों की कमांड दोनो प्रमुख रख रहे थे। आज जब 2023 के चुनाव में सिंधिया खेमा से जुड़े प्रत्याशियों की हालात सबसे खराब बताई जा रही है। ऐसे में इन प्रमुख के उस समय के निर्णय को सही करार दिया जा रहा है।

 

मध्यप्रदेश में सिंधिया की बदौलत जब बीजेपी की सरकार बनती है। उसमें सीधा हस्तक्षेप अमित शाह का होता है। कांग्रेस को छोड़ने का ज्योतिरादित्य का अपना मत था। शाह ने एक पक्ष को समझ पाए। उन्हें कमलनाथ और दिग्विजयसिंह के निर्णय को लेकर समीक्षा करनी आवश्यक थी। अमित शाह शिवराज सिंह को स्प्ष्ट करते हैं कि सिंधिया को पार्टी में आकर कोई शिकायत नही रहनी चाहिए। उन्हें राज्यसभा सांसद बनाकर केंद्रीय मंत्री मंडल में शामिल के बीजेपी सरकार विशेष सम्मान देती है। शाह सिंधिया की सब बातों पर गौर करके चलते हैं। यहाँ शिवराज हाई कमान की बाध्यता के चलते बहुत से गक्त निर्णयों को भविष्य के लिए खतरा जानकर भी खामोश बने रहना उचित समझते हैं। सिंधिया खेमा से जुड़े मंत्रियों की खुली छूट के चलते विधानसभा में लोगों को सताए जाने के मामले बढ़ते जा रहे थे। दूसरी तरफ कुछ मसले शिवराज खेमा से जुड़े मंत्रियों के थे। कुछ वो जो स्वंत्रत थे, उनमे से मंत्री नरोत्तम मिश्रा मंत्री गोपाल भार्गब जैसे नाम आगे आ रहे थे। यहां बीजेपी आलाकमान का माहौल को भांप न पाना साथ मे शिवराज सिंह को कमजोर करते जाना भविष्य के बिगड़े संकेत की स्प्ष्ट दर्शा रहा था।

 

अमित शाह इस मामले में कर्नाटक को जोड़कर देखते रहे। जहां पूर्व सीएम बी एस येदयुरप्पा नाम का डर उन्हें मध्यप्रदेश में सता रहा था। जब कर्नाटक चुनाव का परिणाम सामने आया फिर अमित शाह की आंखे खुलीं। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मध्यप्रदेश में माहौल भाजपा के विरोध का बन गया था।

 

किसी एक पर आप भरोसा जता सकते हैं अगर सारे निर्णयों में खुली आजादी मिलेगी समय के साथ उसके साइड इफेक्ट निकलकर आने लगते हैं। मध्यप्रदेश के बिगड़े समीकरणों में आपसी तालमेल की कमी का होना बड़ी बजह रही है।

 

2018 में मध्यप्रदेश की सत्ता की चाबी में कमलनाथ का कंट्रोल आज के समय से अच्छा निर्णय माना जा रहा है। बीजेपी के समय सत्ता विरोधी एंटी-इनकंबेंसी लहर बेलगाम निर्णयों की बजह से बढ़ती देखी गई है।

 

मामा ने लाड़ली बहना योजना’ शुरू की। इसके तहत प्रदेश की 1 करोड़ 25 लाख महिलाओं के खातों में 1250₹- 1250 ₹  प्रतिमाह जमा किये जा रहे हैं। ‘मुख्यमंत्री सीखो कमाओ योजना’ शुरू की है। योजना के तहत 29 वर्ष तक के बेरोजगार युवा पात्र हैं। इन युवाओं को अलग-अलग संस्थानों में काम करने का प्रशिक्षण, काम सीखने के दौरान 8 हजार रुपये मासिक से 10 हजार रुपये महीने तक स्टाइपेंड भी दिया गया। इसमे 12204 संस्थाएं सरकार से अनुबंध कर चुकी हैं, जबकि 4 लाख 46 हजार 64 युवा योजना में रजिस्ट्रेशन करवाया। इसके साथ मुख्यमंत्री प्रतिभा प्रोत्साहन योजना, मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना, मुख्यमंत्री मेधावी विद्यार्थी योजना, मुख्यमंत्री उद्यम क्रांति योजना, मुख्यमंत्री राशन आपके ग्राम योजना, मुख्यमंत्री जल पात्रता योजना, मुख्यमंत्री कृषक ऋण ब्याज माफी योजना में 2200 करोड़ रुपये का ब्याज माफ किया गया है।

 

राष्ट्रीय पार्टी जब प्रदेश स्तर पर सही निर्णय न ले पा रही हो। उस स्थिति में प्रदेश में गिरता जनाधार इसका बड़ा कारण माना जाता है। भारत में राष्ट्रीय व राज्य (क्षेत्रीय) राजनीतिक दलों का वर्गीकरण क्षेत्र में उनके प्रभाव के अनुसार करें तो आम आदमी पार्टी,  वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी सीमित जो क्षेत्र और सभी विषयों पर नजर रखकर निर्णय लेती है। ऐसी सरकार केंद्र द्वारा उपेक्षित मानकर भी प्रदेश में अच्छा काम कर रही हैं। वैसे भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों और शक्तियों का बंटवारा इस तरह किया गया है कि राज्य और संघ के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो। लेकिन पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ हुई टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी की नेतृत्व की सरकार इसकी सीधी खिलाफत के बाद आज भी सत्ता का स्वाद चख रही है। ममता को छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए शुवेंदु अधिकारी के बाद सत्ता में पुनः वापसी बनर्जी की ताकत और सही निर्णय को दर्शाता है। किसी प्रमुख का पार्टी से बगावत करके बीजेपी में शामिल होना उसके बाद खुद के विश्वसनीय नेताओं को दरकिनार करके आगे चलना। बगावती तेवर को नजर अंदाज करना, विषयों को सही से से न भांप पाने में प्रदेश की रणनीति के तौर पर पार्टी आलाकमान का गलत निर्णय साबित हुआ है।

 

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