राजनीति से जुड़े नेता-बाबुओं को तबज्जो न मिलने की चर्चा में एक बात जो अक्सर बोली जाती है कि जिसके नसीब में ‘मलाई’ होती है ‘जलबे’ उन्ही के रहते हैं। बाकी की जिंदगी दरी बिछाते-बिछाते चली जाती है। यह शोध का विषय रहा है कि किसके हाथो में मलाई मानी जाए और जलवे आखिर किसके रहते हैं ? हालिया सागर में हुई पार्षद और पुलिस की तू-तू.. मैं-मैं.. के बाद इससे जुड़ी हकीकत के पर्दे खुलने से यह स्पष्ट हो गया है, मामले को लेकर राजनीतिक रूप से सागर के आभामंडल में छाए बीजेपी के टिमटिमाते तारों ने एक लॉबी बनाकर इसका विरोध करना शुरू किया। सबको लगा कि चंदा मामा की गैरमौजूदगी के बाद भी वो कमाल कर लौटकर आएंगे। इन सबकी रोशनी से पुलिस विभाग की आंखें चौंधिया जाएंगी। विरोध के बाद जब देखा तो मामले को लेकर उन पर इसका कोई जोर पड़ता दिखाई नही दे रहा है। दल के मुखिया की खिंची लकीर के उस तरफ खड़े तारों की लॉबी बेअसर साबित होती देख दूध का दूध और पानी अलग हो गया है। जहां मुखिया का एक फोनुआ ही कमाल कर जाता है। दूसरी तरफ पार्टी से जुड़ी लंबी कतार असहाय की मुद्रा में नजर आ रही है। राजनीतिक निर्णयों में कमांडर का आर्डर बेहद अहम माना जाता है। संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं का खुद से आगे बढ़ना सही निर्णय साबित नही होता है। निर्णायक के हाँ और न के बाद किसी प्रकार के लाभ और एक औहदे को महत्व मिल पाता है। इस मामले से उन सब तारों को चंदा मामा का महत्व समझ आ गया होगा।
छानबीन से और उस घटना का वीडियो देखने पर जिसका साथ मिलना चाहिए वो क्यों नही मिल रहा है इसको अच्छे से समझा जा सकता है। खैर हम गलत और सही पर क्यों जाएं, ये सब एक इशारे पर झुनझुना बन जाते हैं। वो जो चाहें हो जाता है। पार्टी के न्याय के देवताओं के सामने सब संभव है। दबाव के साथ खुद को सही साबित करने और अपनी पार्टी की सरकार के बीच न्याय – अन्याय के बीच फंसे इस मामले में आखिरी निर्णय और बेचारगी देखने लायक रहने वाली है।